हिंदी कहानियां - भाग 199
भैया आ जाएंगे
भैया आ जाएंगे बात बहुत पुरानी है। छुट्टियों में मम्मी, मेरी तीन बहनें और मैं नाना के पास पटना गए थे। वहां से वापस अपने घर मुंगेर जाने के लिए स्टेशन तक जा रहे थे। साथ में हमारी बुआ के बेटे काकू भैया भी थे। वह मुंगेर में रहकर बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे। उस समय मैं आठवीं में पढ़ती थी। भैया पढ़ाई में मेरी मदद करते थे। प्लेटफार्म पर पहुंचे ही थे कि ट्रेन आ गई। सबने डिब्बे में अपनी-अपनी सीट ले ली। थोड़ी देर में ट्रेन चल दी। हम सब बातचीत करते हुए मस्ती कर रहे थे। दिन के दो बजने वाले थे। मुझसे छोटी बहन टिंपी बोली, “मम्मी, भूख लगी है।” मम्मी ने खाना निकाला। खाना खाने के बाद सबसे छोटी बहन, जिसे सब छुटकी कहते थे, बोली, “मम्मी, कुछ मीठा दे दो।” “अरे, मीठा तो मैं लाई ही नहीं।” “तो अगले स्टेशन पर जब ट्रेन रुके, तो कुछ खरीद लेना। केक ले लेना मम्मी।” कुछ ही देर में अगला स्टेशन आ गया। छुटकी चिल्लाई, “केक -केक।” पर ट्रेन केक के स्टॉल से काफी आगे जाकर रुकी। “स्टॉल तो दूर है। ट्रेन ज्यादा देर नहीं रुकेगी, रहने दो।” मम्मी ने समझाया, पर छुटकी कहां मानने वाली थी। “मैं दौड़कर ले आता हूं।” काकू भैया ने कहा। मम्मी ने दस रुपए दिए। भैया नीचे उतर गए। प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी। कुछ देर बाद ट्रेन की सीटी बज गई। “भैया नहीं आए? सीटी तो बज गई।” मैंने कहा। “पता नहीं, कहां रह गया।” मम्मी परेशान थीं। मम्मी गेट तक गईं, बाहर झांका। इतने में ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी। प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी। मम्मी ने बताया कि उनको भैया दिखे। उनके हाथ में केक था। वे काफी पीछे थे और दौड़ रहे थे। इतने में ट्रेन तेज हो गई। “मम्मी, भैया कहां रह गए?” छुटकी ने पूछा। “शायद किसी और डिब्बे में चढ़ गया होगा। मुंगेर पर मिल जाएगा। मुझे भेजना ही नहीं चाहिए था उसे। तुमने ही जिद की थी।” हम सब चुप हो गए। छुटकी तो रोंआसी हो गई,“मम्मी, भैया आ जाएंगे ना?” “हां, आ जाएंगे।” मम्मी ने परेशान होकर कहा। तीन स्टेशनों के बाद मुंगेर आने वाला था। सब बेसब्री से मुंगेर आने का इंतजार कर रहे थे। हम सबको उम्मीद थी कि भैया दूसरे डिब्बे में चढ़ गए होंगे और मुंगेर स्टेशन पर मिल जाएंगे। इतने में मुंगेर स्टेशन आ गया। गाड़ी से उतरकर हम भीड़ में भैया को ढूंढ़ रहे थे। काफी समय निकल गया, पर वह नहीं आए। हम घर आ गए। पापा को देखते ही छुटकी बोली, “भैया छूट गए।” और पूरी बात बता दी। “गलती मेरी है, मैंने ही उसे केक लेने भेज दिया था।” मम्मी ने कहा। “अब परेशान मत हो इंदु, अगली ट्रेन से टिकट लेकर आ जाएगा वह।” “पर पैसे नहीं हैं उसके पास। उसने अपना पर्स मेरे पास रखवा दिया था और जो पैसे मैंने दिए थे, उससे केक खरीद लिया।” “ओह! चलोे देखते हैं।” चार घंटे बाद अगली ट्रेन आनी थी। हम सब बेसब्री से इंतजार करने लगे और भैया सच में उससे आ गए। मम्मी ने सवालों की झड़ी लगा दी, “कैसे आए?” “ट्रेन से।” “बिना टिकट?” “नहीं। टिकट लेकर।” “पैसे कहां से आए? तुम्हारे पास तो पैसे थे नहीं। किसी से उधार लिए क्या?” “कुछ गलत करके तो टिकट नहीं लिया?” पापा ने पूछा। “अरे, मामाजी, मैंने कुछ गलत नहीं किया।” “तो पैसे कहां से आए?” “केक लेने के लिए मैं दौड़ता हुआ स्टॉल पर पहुंचा। पर वहां पर बहुत भीड़ थी। धक्का-मुक्की करके आगे घुस गया। केक देने में दुकानदार ने देर लगा दी। किसी तरह केक खरीदा। पलटकर देखा, तो ट्रेन चल दी थी। मैं दौड़ने लगा, पर तब तक ट्रेन काफी तेज हो गई। डिब्बा बहुत दूर था, तो मैं रुक गया।” “फिर क्या हुआ?” मैंने पूछा। “मैं वहीं बेंच पर बैठ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। पैसे थे नहीं। पर्स मामी को दे दिया था। दस रुपए का केक आ गया था। मुंगेर तक का टिकट सात रुपए का था। क्या करूं? किसी से मांग लूं। किसी को पूरी बात बताऊंगा, तो शायद वह मदद कर दे या स्टेशन मास्टर से कहूं। तभी कुछ सूझा।” “क्या सूझा?” मम्मी ने पूछा। “मैंने केक वापस कर दिया।” “क्या? केक वापस कर दिया?” सब एक साथ बोले। “हां, मैंने सोचा कि केक वापस कर दूं, तो रुपए मिल जाएंगे और उससे टिकट खरीद लूंगा।” “अच्छा।” मम्मी बोलीं। “पहले तो दुकानदार ने आना-कानी की। पर जब मैंने पूरी बात बताई, तो उसने केक लेकर पूरे दस रुपए वापस कर दिए।” “अरे वाह!” पापा खुश हो गए। “सात रुपए का टिकट लिया। भूख भी लग रही थी। दो रुपए का बिस्कुट का पैकेट खरीदा और अगली ट्रेन से आ गया। और मामी, यह रहा आपका एक रुपया। हिसाब बराबर।”